मैंने तो आजाद भारत में आंखें खोली हैं, भारत-पाकिस्तान का बंदरबांट हो चुका था, दोनों देश अपना अपना संविधान बनाकर लागू भी कर चुके थे, इसके अलावा भारत अपने पड़ोसी देशों, चीन और पाकिस्तान से चार अहम युद्ध भी लड़ चुका था, और पाकिस्तान बंगालियों से उर्दू का "शीन" और "क़ाफ़" अदा कराने के चक्कर में पूरे पूर्वी पाकिस्तान से हाथ धो बैठा था।
मतलब यह कि सिर्फ धर्म ही नहीं बल्कि भाषा और संस्कृति भी बड़ी खतरनाक चीजें होती हैं, इनके कारण भी देश बनते और बिगड़ते हैं, 25 मार्च 1971 की रात को खाना खाकर पाकिस्तान के शहर ढाका में सोने वालों की राष्ट्रीय भाषा उर्दू और राष्ट्रीयता पाकिस्तान होती है लेकिन जब सुबह उठते हैं तो राष्ट्रभाषा बंगाली और राष्ट्रीयता बांग्लादेश हो जाती है।
गांव के सरकारी स्कूल से पढ़ाई शुरू की, पढ़ने में ठीक-ठाक था, लेकिन स्कूल में उर्दू भाषा की पढ़ाई नहीं होती थी, इसलिए मुझे दूसरी कक्षा के बाद मदरसा में दाखिला लेना पड़ा था, मुझे पूरे तौर पर याद है कि मेरे एक ब्राह्मण शिक्षक थे, ठीक-ठाक विद्यार्थी होने के कारण मुझे बहुत चाहते थे, जब मैं टीoसीo लेने पहुंचा, तो उन्होंने पहले तो बहुत समझाया और कहने लगे कि उर्दू गांव के मदरसा में पार्ट टाइम पढ़ लो, यह स्कूल मत छोड़ो। लेकिन बहरहाल मुझे जाना था जब वह मायूस हो गए तो उनके चेहरे पर मायूसी जाहिर भी हो गई, यानी उनकी आंखें भर आई।
मेरे पड़ोस में एक पंडित जी हुआ करते थे, नाम था राम विलास । पंडित जी उर्दू भाषा और साहित्य के अच्छे अध्यापक थे,और सरकारी स्कूल में नौकरी भी कर चुके थे। किसी कारण सेवा मुक्त होकर जजमान देख रहे थे।
मदरसे से आने के बाद पंडित जी के घर के पास खाली जमीन में कभी-कभी बकरियां चराया करता था, पंडित जी रस्सी बटते थे और वहां मौजूद लोगों को किस्से, कहानियां सुनाकर नैतिकता का ज्ञान दिया करते थे। मैं भी उनके पास जाया करता था, एक दिन उन्होंने मुझसे पूछ लिया:
"उर्दू पढ़ते हैं ?" मैंने कहा: "जी पंडित जी!"
"इस्माइल मेरठी की कोई नज़्म सुनाओ ?" उनका दूसरा सवाल था।
उस वक्त मैं शायद कक्षा 3 में था, पंडित जी का सवाल सुनकर बगलें झांकने लगा, क्योंकि मैंने इस्माइल मेरठी की नज़्म पढ़ी जरूर थी, मगर यह मालूम ना था, कि शायर इस्माइल मेरठी ही हैं । जवाब में देर होते देख उन्होंने गुनगुनाना शुरू किया: "रब का शुक्र अदा कर भाई"
"जिसने हमारी गाय बनाई "। मैंने उचक लिया और पूरी कविता सुना डाली, कविता सुनने के बाद उन्होंने उर्दू भाषा की मिठास पर एक लेक्चर दे डाली, जो मुझे याद नहीं रहा, हां उन्होंने अपने भाषण के दौरान दाग देहलवी का एक शेअर पढ़ा था, वह अब तक याद है।
उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़ुबां की है।।
मेरे गांव में पंडित रामविलास उर्दू जानने वाले आखिरी हिंदू थे, वह भी इस दुनिया से चल बसे।
यह वह जमाना था जब हिंदू मुस्लिम संप्रदायिकता देहातों तक आज जैसी भयानक शक्ल में नहीं पहुंची थी हालांकि आडवाणी की रथयात्रा भी हो चुकी थी, और उसके बाद बाबरी मस्जिद की शहादत भी। अयोध्या से करीब होने की वजह से सुनने में आया था कि मेरे गांव के कुछ हिंदू कार सेवा के लिए गए हुए थे, लेकिन हमें इसके बारे में कोई जानकारी नहीं।
नफरत की सियासत की शुरुआत हो चुकी थी, धीरे-धीरे उसने पूरे मुल्क को अपने चंगुल में ले लिया, अब तो इस किस्म की खबरें आने लगी हैं कि एक स्कूल में हिंदू और मुसलमानों का मजहब की बुनियाद पर सेक्शन बनाया गया। एक स्कूल में छोटी जाति और बड़ी जाति की बुनियाद पर सेक्शन बनाया गया। अब क्या कहा जाए? बस यही कहा जा सकता है कि भारत बदल चुका है, भारत का संविधान दम तोड़ रहा है।
मैं मुसलमान हूं लेकिन मेरा ब्राह्मण शिक्षक मेरे स्कूल छोड़ने की वजह से भावुक हो गया था, पंडित जी उर्दू पढ़ना लिखना फ्री में सिखाते थे, लेकिन आज के नफरत वाले वातावरण में इस तरह का उदाहरण मिलना मुश्किल है। नाजिया इरम ने अंग्रेजी में एक किताब लिखी," मदरिंग ए मुस्लिम" जिस का हिंदी अनुवाद "एक मुसलमान मां की आवाज़" के नाम से प्रकाशित हो चुका है, उसमें बताया गया है कि मुस्लिम होने के कारण बच्चों को स्कूल में किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है, शिक्षक, सहपाठी और दूसरे लोग संप्रदायिक टिप्पणियां करते हैं बच्चों को खुले मुंह पाकिस्तानी, आतंकवादी, तालिबानी और दूसरी घृणा भरी फब्तियां झेलनी पड़ती हैं।
मेरे पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि मेरी पढ़ाई के जमाने में मुस्लिम और दलित विद्यार्थियों के साथ गैर मुस्लिम बहुसंख्यक स्कूलों में बहुत अच्छा सलूक होता रहा होगा, इसीलिए इस बात का दावा भी नहीं कर सकता। लेकिन यह कहने में ज़र्रा बराबर हिचक नहीं कि आज जैसा जहरीला माहौल नहीं था, हालांकि वह आजादी की पांचवी दहाई ही थी।
भारत की आजादी, जिसमें धर्म की बुनियाद पर पाकिस्तान का वजूद हुआ फिर भयानक किस्म के संप्रदायिक दंगे हुए, नतीजतन मास माइग्रेशन हुआ एक करोड़ से ज्यादा लोग भारत छोड़कर पाकिस्तान और पाकिस्तान छोड़कर भारत आए । तकरीबन 2000000 लोग मारे गए सिर्फ कराची में तकरीबन 1100 हिंदू मारे गए थे और लगभग 800000 लोगों को अपना घर बार छोड़ कर भारत आना पड़ा था, जबकि सिर्फ दिल्ली में तकरीबन 25000 मुसलमानों को दंगों ने निगल लिया, या तो उन्हें पलायन करना पड़ा था या मार दिए गए थे। जो भी हो 1941 की जनगणना में दिल्ली में मुसलमानों की आबादी 33% से ज्यादा थी और 1951 की जनगणना में 5% रह गई । इस तरह की तबाहियों से इतिहास का दामन भरा हुआ है।
भारत के लीडरों ने बड़ी तबाही और भयानक घाटे के बाद फिर से भारत को संवारने की कोशिश की, एक आदर्श संविधान बनाया, जिसने सबको जीने का हक दिया, जिसने यह बताया कि रंग, नस्ल, धर्म, लिंग, जाति और प्रांत किसी भी कारण से किसी के साथ भेदभाव नहीं होगा। और तो छोड़िए भारत ने तो सेकुलरिज्म की परिभाषा ही बदल डाली। एक नए प्रकार की धर्मनरपेक्षता का इजाफा किया। "इंडियन सेकुलरिज्म"। क्योंकि आज भी सेकुलरिज्म का तर्जुमा उर्दू, अरबी में "ला दीनियत" से किया जाता है। मगर भारतीय सेकुलरिज्म का मतलब "ला दीनियत" नहीं हो सकता। क्योंकि हिंदुस्तानी सेकुलरिज्म का मतलब है, तमाम धर्मों को फलने फूलने और उनके प्रचार प्रसार की आजादी, मगर हुकूमत का कोई खास धर्म नहीं होगा।
यकीनी तौर पर यह कहा जा सकता है कि सेकुलरिज्म का नजरिया हुकूमत की सुलह ए कुल पर बना है लेकिन इसकी आड़ में कुछ लोगों ने अवाम को मजहब से हो दूर जाने पर मजबूर किया, हमारे सामने तुर्की के लीडर मुस्तफा कमाल पाशा की मिसाल मौजूद है, उन्होंने सेकुलरिज्म की आड में मजहबी पहचान और धार्मिक लोगों के साथ क्या-क्या जुल्म जायज़ न रखा, महान उस्मानी खिलाफत की निशानियां खत्म करने की कोशिश की, खानकाहों और मदरसों को बर्बाद किया, मजहबी तालीम पर पाबंदी लगाई यहां तक कि तुर्की भाषा की अरबी लिपि को रोमन से बदल दिया। ताकि आने वाली नस्लें भूल जाए कि कभी तुर्की ने शरीयत के कानून के साथ दुनिया के एक बड़े हिस्से पर हुकूमत की थी।
यह भी एक धर्मनिपेक्षतावाद था, जिसे कमाल पाशा ने समझा लेकिन भारत का नजरिया उससे अलग बना और भारतीय संविधान ने सब को आजादी दी । और भारत की जनता ने धीरे-धीरे खुद को बंधुत्व, सहिसुंता और बर्दाश्त के नजरिए पर फिर से डालना शुरू किया। और शायद ढाल भी लेते लेकिन धर्मनिरपक्षतावाद का स्वांग रचने वाली पार्टी सत्ता की मलाई में व्यस्त हो गई जबकि अतिवादी और कट्टर संगठन स्कूल,कॉलेज और यूनिवर्सिटी बनाने में। आज नतीजा हमारे सामने है, सज्जन आदमी अंदर अंदर अपने बच्चों के भविष्य को लेकर डरने लगा है। चाहे हिंदू हो या मुसलमान।।।।
यह लेख मूलतः उर्दू में लिखा गया था
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